अतिरिक्त >> हिंदी भाषा, राजभाषा और लिपि हिंदी भाषा, राजभाषा और लिपिपरमानंद पांचाल
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हिंदी भाषा, राजभाषा और लिपि...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिंदी की एक लम्बी साहित्यिक परंपरा रही है। अपने विभिन्न क्षेत्रीय भाषा-रूपों में रचित समृद्ध साहित्य को लेकर हिंदी आज के अपने परिनिष्ठित स्वरूप तक पहुंची है। देश के विभिन्न क्षेत्रों, समुदायों और मतावलंबियों के निरंतर योगदान से इसकी सामासिक प्रकृति अक्षुण्ण रही है। मध्य काल में फारसी भले ही राजभाषा थी, किंतु जनता में व्यवहार की भाषा तो यही थी, जिसे भाषा या भाखा कहा गया। मुसलमानों के आगमन से इसे हिंदूई, हिंदवी और फिर हिंदी नाम दिया गया। दक्षिण में जाकर यहीं दक्खिनी हिंदी कहलाई। साधू-संतो और सूफियों ने इसी भाषा को अपने प्रचार का माध्यम बनाया और यह एक संपर्क भाषा के रूप में ढलती चली गई।
स्वतन्त्रता आंदोलन में महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के रूप इस की पहचान की। स्वतन्त्र भारत के संविधान में देव नागरी लिपि के साथ यही हिंदी राजभाषा के पद पर आसीन होकर केन्द्रीय सरकार में प्रशासन की भाषा के रूप में अपने दायित्व का निर्वाह कर रही है। हिंदी भाषा की इन दोनों ही भूमिकाओं पर आधुनिक संदर्भ में नवीन चिंतन के साथ व्यावहारिक और उपयोगी विवेचन ही इस ग्रंथ का उद्देश्य है।
स्वतन्त्रता आंदोलन में महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के रूप इस की पहचान की। स्वतन्त्र भारत के संविधान में देव नागरी लिपि के साथ यही हिंदी राजभाषा के पद पर आसीन होकर केन्द्रीय सरकार में प्रशासन की भाषा के रूप में अपने दायित्व का निर्वाह कर रही है। हिंदी भाषा की इन दोनों ही भूमिकाओं पर आधुनिक संदर्भ में नवीन चिंतन के साथ व्यावहारिक और उपयोगी विवेचन ही इस ग्रंथ का उद्देश्य है।
दूसरा संस्करण
भारत के संविधान में हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किए जाने के बाद अब केवल साहित्यिक क्षेत्र तक ही सीमित न रह कर हिन्दी देश की प्रशासनिक न्यायिक, वाणिज्यिक और विधायी क्षेत्र की भाषा के रूप में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। हिन्दी अब मात्र उत्तर के एक विशेष क्षेत्र की ही भाषा नहीं, वरन् सम्पूर्ण भारत संघ की राजभाषा समस्त देश की सम्पर्क भाषा और राष्ट्र भाषा है। इस प्रकार हिन्दी को ही यह श्रेय प्राप्त है कि वह विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की राजभाषा है। हिन्दी भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी विश्व के अनेक देशों में बोली, समझी और पढ़ाई जाती है। आज विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था है। विदेशों में बसे करोड़ों की संख्या में प्रवासी भारतीयों और भारत मूल के लोगों के बीच आत्मीयता के सम्बन्ध सूत्र स्थापित करने और उन्हें भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति से निरन्तर जोड़े रखने में हिन्दी एक सशक्त माध्यम का काम कर रही है और इसी में वे अपनी अस्मिता की पहचान भी देख रहे हैं।
हिन्दी की इस राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका को दृष्टि में रखते हुए इस पुस्तक में कई नवीन किन्तु महत्वपूर्ण विषयों को समाविष्ट कर इसे सामान्य हिन्दी पाठकों, शोधार्थियों, राजभाषा से जुड़े सरकारी कार्मिकों के लिए और भी उपयोगी और पठनीय बनाने का प्रयास किया गया है।
हिन्दी बुक सेंटर के निदेशक श्री अनिल कुमार वर्मा ने इस परिवर्धित संस्करण को बिना किसी सरकारी अनुदान के प्रकाशित कर सुधी पाठकों तक पहुँचाने की कृपा की है, मैं उनके प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ।
हिन्दी की इस राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका को दृष्टि में रखते हुए इस पुस्तक में कई नवीन किन्तु महत्वपूर्ण विषयों को समाविष्ट कर इसे सामान्य हिन्दी पाठकों, शोधार्थियों, राजभाषा से जुड़े सरकारी कार्मिकों के लिए और भी उपयोगी और पठनीय बनाने का प्रयास किया गया है।
हिन्दी बुक सेंटर के निदेशक श्री अनिल कुमार वर्मा ने इस परिवर्धित संस्करण को बिना किसी सरकारी अनुदान के प्रकाशित कर सुधी पाठकों तक पहुँचाने की कृपा की है, मैं उनके प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ।
- डॉ. परमानन्द पांचाल
प्राक्कथन
हिन्दी का इतिहास प्रायः एक हज़ार वर्ष पुराना है। इस काल अवधि में हिन्दी में विभिन्न विधाओं में निःसन्देह विपुल समृद्ध और सक्षम साहित्य की रचना हुई है। देश की सामाजिक संस्कृति की सबल संवाहिका के रूप में आरम्भ से ही हिन्दी प्रेम, सौहार्द और राष्ट्रीय एकता की प्रतीक रही है। रचतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गांधी जी और अन्य अग्रणी राष्ट्र नेताओं ने राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी सही पचनान की थी। स्वतन्त्र भारत के संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने से इसकी भूमिका गुरूतर होकर बहुआयामी ओर बहुउद्देशीय हो गई है। इसे साहित्य ही नहीं, शासन, प्रशासन, ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा सूचना आदि के क्षेत्र में एक सक्षम और समृद्ध माध्यम के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करना है। निःसन्देह इस दिशा में हिंदी आगे बढ़ रही है। अपेक्षित आशाओं की पूर्ति न होने के उपरान्त भी हिंदी का स्थान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निरंतर बढ़ रहा है। विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा और विश्व के सबसे बड़े गणराज्य की राजभाषा होने के नाते, हिंदी ने अपनी वैश्विक पहचान भी स्थापित की है। भारत ही नहीं संसार के अनेक देशों में हिंदी बोली और समझी जाती है। विश्व के डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी का पठन-पाठन भी हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब तक छह विश्व हिंदी सम्मेलन भी आयोजित हो चुके हैं। इस प्रकार हिंदी अब प्रादेशिक भाषा ही नहीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकृति पा चुकी है।
हिंदी के इस विविध आयामी स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए, मैंने हिंदी भाषा और साहित्य तथा लिपि के संबंध में समय-समय पर लिखे गए अपने लेखों को क्रमबद्ध और सुसंगत रूप में पुस्तकाकार रूप देने का प्रयास किया है। विषयों की विविधता की दृष्टि से पुस्तक को तीन भागों अर्थात भाषा, राजभाषा और लिपि खंडों में विभाजित कर दिया गया है।
हिंदी भाषा और साहित्य के संबंध में मेरे अपने कुछ विचार हैं, जिन्हें मैंने हिंदी के धर्मनिर्पेक्ष व्यापक राष्ट्रीय स्वरूप के परिप्रेक्ष्य में सुधी पाठकों और सुविज्ञ विद्वानों के समक्ष रखा है। आशा है हिंदी भाषा और साहित्य के मर्मज्ञों, जिज्ञासु अध्येताओं और राजभाषा कार्यान्वयन के दायित्वों का निर्वाह कर रहे भारत सरकार के अधिकारियों में यह किंचित प्रयास स्वीकार्य हो सकेगा। हिंदी शोधार्थियों और हिंदी से संबंधित अधिकारियों को इस से यदि कुछ भी प्रेरणा और सहायता मिलती है, तो मुझे इससे प्रसन्नता होगी। पुस्तक में भारत सरकार की मानक वर्तनी का ही प्रयोग किया गया है।
विषयों के चयन और संकलन में मुझे अपने सहयोगियों और शुभचिंतकों से उपयोगी सहायता और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है, उनके प्रति आभार प्रकट करना मैं अपना कर्तव्य मानता हूं। चि. सुधीर कुमार पांचाल ने सामग्री को व्यवस्थित ओर संकलित करने में मेरा हाथ बटाया है, उन्हें धन्यवाद तो क्या दूं, मेरा आशीर्वाद उनके साथ है। राजभाषा विभाग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, साहित्य अकादमी और केन्द्रीय सचिवालय ग्रन्थागार के ‘तुलसी सदन’ को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होने मुझे अध्ययन और अनुशीलन के लिए समुचित सुविधा प्रदान की।
अंत में, मैं आभारी हूँ केन्द्रीय हिंदी निदेशालय का जिसकी अनुदान सहायता से यह पुस्तक प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंच सकी।
हिंदी के इस विविध आयामी स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए, मैंने हिंदी भाषा और साहित्य तथा लिपि के संबंध में समय-समय पर लिखे गए अपने लेखों को क्रमबद्ध और सुसंगत रूप में पुस्तकाकार रूप देने का प्रयास किया है। विषयों की विविधता की दृष्टि से पुस्तक को तीन भागों अर्थात भाषा, राजभाषा और लिपि खंडों में विभाजित कर दिया गया है।
हिंदी भाषा और साहित्य के संबंध में मेरे अपने कुछ विचार हैं, जिन्हें मैंने हिंदी के धर्मनिर्पेक्ष व्यापक राष्ट्रीय स्वरूप के परिप्रेक्ष्य में सुधी पाठकों और सुविज्ञ विद्वानों के समक्ष रखा है। आशा है हिंदी भाषा और साहित्य के मर्मज्ञों, जिज्ञासु अध्येताओं और राजभाषा कार्यान्वयन के दायित्वों का निर्वाह कर रहे भारत सरकार के अधिकारियों में यह किंचित प्रयास स्वीकार्य हो सकेगा। हिंदी शोधार्थियों और हिंदी से संबंधित अधिकारियों को इस से यदि कुछ भी प्रेरणा और सहायता मिलती है, तो मुझे इससे प्रसन्नता होगी। पुस्तक में भारत सरकार की मानक वर्तनी का ही प्रयोग किया गया है।
विषयों के चयन और संकलन में मुझे अपने सहयोगियों और शुभचिंतकों से उपयोगी सहायता और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है, उनके प्रति आभार प्रकट करना मैं अपना कर्तव्य मानता हूं। चि. सुधीर कुमार पांचाल ने सामग्री को व्यवस्थित ओर संकलित करने में मेरा हाथ बटाया है, उन्हें धन्यवाद तो क्या दूं, मेरा आशीर्वाद उनके साथ है। राजभाषा विभाग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, साहित्य अकादमी और केन्द्रीय सचिवालय ग्रन्थागार के ‘तुलसी सदन’ को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होने मुझे अध्ययन और अनुशीलन के लिए समुचित सुविधा प्रदान की।
अंत में, मैं आभारी हूँ केन्द्रीय हिंदी निदेशालय का जिसकी अनुदान सहायता से यह पुस्तक प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंच सकी।
- डा. परमानन्द पांचाल
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